रविवार, 14 मार्च 2010
भविष्य अमेरिका का है यह झूठा दावा है
मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010
कोपेनहेगन की उत्तेजना के मूल में मनुष्य की चिन्ताएं
धरती की जलवायु पर कोपेनहेगन सम्मेलन (7–18 दिसंबर ’09) खत्म होगया। सम्मेलन के अंदर और बाहर, सभी जगह बेहिसाब उत्तेजना रही। उत्तेजना के मूल में यह चिंता थी कि इस पृथ्वी ग्रह को बचाने का आखिरी मौका है। अब न चेता गया तो पृथ्वी और उसपर मनुष्य मात्र के अस्तित्व पर खतरा है।
इसके बावजूद, अमेरिका, चीन, भारत, ब्राजिल, जर्मनी, फ्रांस आदि आज की दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले देशों के राष्ट्राध्यक्ष घंटों सर खपाते रह गये, लेकिन जिसे सख्ती के साथ सारी दुनिया पर लागू किया जा सके, ऐसी वैद्यानिक बाध्यता वाला कोई नतीजा सामने नही आया। निष्कर्ष के तौर पर जिस समझौते की घोषणा की गयी, वह पर्यावरण को बचाने के बारे में एक सामान्य प्रकार की प्रतिबद्धता के अलावा और कुछ नहीं था। धरती के तापमान को और 2 डिग्री सेंटीग्रेट से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जाना चाहिए, धनी देश अपने ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करेंगे, विकासशील देश अपने उत्सर्जन पर नियंत्रण करेंगे और गरीब देशों को मौसम में परिवर्तन से निपटने के लिये आर्थिक सहायता दी जायेगी – इस तरह की कुछ सामान्य प्रतिश्रुतियों के अलावा वन–संरक्षण और ग्रीन तकनीक के महत्व की बातें इस समझौते में कही गयी है।
फिर भी जो लोग इस सम्मेलन को पूरी तरह से विफल बताते हैं, उनके मंतव्य पर ‘टाईम’ पत्रिका का कहना है कि यह कोरा ‘सरलीकरण’ है। उसके टिप्पणीकार के अनुसार विवादों का होना ही इस सम्मेलन का होना है। कोपेनहेगन में समझौते पर पहुंचने के लिये किया गया संघर्ष ही यह बताता है कि मौसम संबंधी नीति अब जाकर परिपक्व हुई है। कोपेनहेगन में चली वार्ता इतने विवादों से भरी हुई इसलिये थी क्योंकि इसके प्रस्तावों का वास्तविक असर सिफर् पर्यावरण पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अर्थ–व्यवस्थाओं पर पड़ेगा। चीन और अमेरिका ने वार्ता के लिये अपने राष्ट्राध्यक्षों को भेजा और सिफर् इसलिये काफी फूंक फूंक कर कदम रखे क्योंकि इसमें उन्हें कुछ खोना था।
संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में पर्यावरण सम्मेलनों का सिलसिला 1972 से शुरू होगया था। कोपेनहेगन सम्मेलन 15वां सम्मेलन था। 1997 में जापान के क्योटो में तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाये जाने के बारे में दुनिया के देशों के बीच बाकायदा एक समझौता हुआ था, जिसे 2005 के फरवरी से कानूनन लागू कर दिये जाने की बात थी। उस समझौते पर दुनिया के 141 देशों ने हस्ताक्षर किये थे तथा सबने अपनी राष्ट्रीय सभाओं से उन पर मोहर भी लगवा ली थी। लेकिन अकेले अमेरिका की सीनेट ने उसे स्वीकार नहीं किया और वह पूरा समझौता अधर में लटक कर रह गया। क्योटो संधि के अनुसार सात वर्ष के अंदर दुनिया के विकसित देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 5 प्रतिशत कटौती करनी थी। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उस पर हस्ताक्षर किये थे। लेकिन 2001 में अमेरिका के नये राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इस संधि को यह कह कर ठुकरा दिया कि यह एक बेहद महंगा मामला है। परवर्ती दिनों में व्हाइट हाउस ने ग्लोबल वार्मिंग के बारे मे वैज्ञानिकों के आकलन पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिया और कहा जाने लगा कि यदि अमेरिका इस संधि को मान लेता है तो उससे सारी दुनिया में करोड़ों लोगों के रोजगार छिन जायेंगे।
प्रश्न जहां इस पृथ्वी और उसपर मनुष्य–मात्र के अस्तित्व से जुड़ा हुआ हो, वहां भी राष्ट्रों के खोने–पाने का स्वार्थी हिसाब किया जा रहा है, इसे देख कर बहुतों को आश्चर्य हो सकता है। लेकिन ‘वैश्विक’ चिंताओं वाले इस युग की सबसे बड़ी सचाई यही है। इससे साफ है कि जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण का सवाल सिफर् प्राकृतिक विज्ञान की किसी एक शाखा और उसके विशेषज्ञों का सवाल नहीं है, जैसा कि इस बीच तैयार होगयी पेशेवर पर्यावरण विशेषज्ञों की एक बड़ी सी फौज बताना चाहती है, बल्कि उससे बहुत आगे पूरे सभ्यता विमर्श से जुड़ा हुआ एक व्यापक सामाजिक–आर्थिक सवाल है।
कोपेनहेगन में भी इस सच के अहसास की झलक दिखाई दी थी। इसका प्रमाण अखबारों की रिपोर्टों से पता चलता है कि वहां इका हुए गैर–सरकारी प्रतिनिधियों के बीच गांधीजी के प्रति बड़ा आग्रह था और सम्मेलन स्थल के बाहर ही गांधीजी की एक बड़ी सी तस्वीर भी लगी हुई थी। आज के काल में पर्यावरण के संदर्भ में गांधीजी का स्मरण अनायास नहीं है। यह साल गांधीजी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ की शताब्दी का साल है और ‘हिंद स्वराज’ को आधुनिक सभ्यता के खिलाफ तीव्र घृणा से भरा एक जोरदार अभियोग पत्र कहा जा सकता है। इसमें मौजूदा पूंजीवादी आधुनिक सभ्यता को ‘अधर्म’, ‘शैतानी राज्य’, ‘कलियुग’, ‘नाशकारी’ और ‘नाशवान’ क्या–क्या नहीं कहा गया है। यह ऐसी सभ्यता है कि इसकी लपेट में पड़े हुए लोग अपनी ही सुलगाई आग में जल मरेंगे। इस सभ्यता के प्रतीक रेलगाड़ी, वकील और डाक्टर पर गांधीजी का आरोप था कि भारत को रेलगाडि़यों, वकीलों और डाक्टरों ने कंगाल बना दिया है।
गांधीजी ने इस सभ्यता को बुरी तरह कोसा था, 1909 के बाद से लेकर आजादी के पहले तक वे अपने उन विचारों में किसी परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह हैे कि खुद अपनी देख–रेख में उन्होंने कांग्रेस के मंच से भारत के भावी विकास की जिन तमाम योजनाओं को अनुमोदित किया, वे रेल की पटरियों को उखाड़ फेंकने या अदालतों को खत्म कर देने और आधुनिक चिकित्सा को ठुकराने की योजनाएं नहीं थी। अगर गहराई से देखे तो पता चलेगा कि गांधीजी की आधुनिक वर्तमान की त्रासदियों की पहचान और उसे अधर्म बताना उनके ‘असहयोग’ की तरह ही उनका ‘नकार’ था, विकल्प नहीं। किसी भी बात को अस्वीकार करना भी उतना ही बड़ा आदर्श हो सकता है जितना किसी बात को स्वीकार करना...उपनिषदों के रचयिताओं ने ब्रा का सबसे अच्छा वर्णन ‘नेति–नेति’ कहकर ही किया है। – असहयोग के बारे में रवीन्द्रनाथ की आपत्तियों पर बहस करते हुए गांधीजी का यही मूल जवाब था। उनके विपरीत रवीन्द्रनाथ का सारा बल इस बात पर था कि मनुष्य के अंत:करण का धर्म यही है कि वह परिश्रम से केवल सफलता ही नहीं बल्कि आनंद भी प्राप्त करता है। ...यदि कुछ लोग कहें, यह पत्थर का फलक हमारे दादा–परदादाओं का हथियार है, इसको यदि हम छोड़ दें तो हमारी जाति नष्ट हो जायेगी तो जिसको वे ‘जाति–रक्षा’ कहते हैं वह संभव हो भी सकती है लेकिन वे मानवता की महान परंपरा को आघात पहंुचाते हैं जो उनकी भी है। जो लोग आज भी पत्थर के फलक से संतुष्ट हैं उनको मनुष्य ने जाति से बाहर कर दिया है वे जंगलों में छिपकर जीवन व्यतीत करते हैं।
इसीलिये मसला गांधीजी के इस ‘नकार’ को सत्य मानने का नहीं है, उसकी अन्तरदृष्टि को समझने और आत्मसात करने का है। गांधीजी ने वर्तमान की त्रासदी की लाक्षणिक पहचान की और उसकी बुराइयों की निंदा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन इस त्रासदी की बुनियाद में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के जरिये सक्रिय जो लोभ–लालच काम कर रहा है, जो रवीन्द्रनाथ के संधानशील मानवीय अंत:करण को, विज्ञान भी जिसकी एक अभिव्यक्ति है, नगद–कौड़ी की सेवा में नियुक्त किये हुए है, गांधीजी उसके प्रति कभी उतने निर्मम और कठोर नहीं हो पाये।
प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार को मनुष्य के साथ मनुष्य के व्यवहार से अलग करके नहीं समझा जा सकता। जिस समाज में उत्पादन के साधनों से विच्छिन्न मनुष्य की श्रम शक्ति एक बिकाऊ माल होती है, प्रकृति को अपना दास मानना और उसका अधिक से अधिक पण्यीकरण भी उसी समाज की मूल प्रवृत्ति है। श्रम की तरह ही प्रकृति संपदा का एक प्रमुख स्रोत है। पूंजीवादी अर्थनीतिशास्त्र उसे मुफ्त की चीज नहीं मानता। और, कहना न होगा, पूरी समाज व्यवस्था प्रकृति तथा श्रम, इन दोनों की ही अबाध लूट को बदस्तूर कायम रखने के समूचे ताम–झाम के अलावा और कुछ नहीं है। ‘श्रम ही सारी संपदा का श्रोत है’ क्लासिकल अर्थशास्त्र के इस कथन को मार्क्स एक दुरभिसंधिमूलक कथन मानते थे। उनके शब्दों में पूंजीपति अगर झूठे ही श्रम पर अलौकिक सृजन शक्ति का आरोप करते हैं तो वे ऐसा सकारण करते हैं, क्योंकि ठीक इसी बात से कि श्रम प्रकृति पर निर्भर करता है, यह बात पैदा होती है कि जिस मनुष्य के पास अपनी श्रम–शक्ति के अलावा और कोई संपत्ति नहीं है, उसे समाज और संस्कृति की सभी अवस्थाओं में उन दूसरे मनुष्यों का दास होना पड़ेगा, जिन्होंने अपने को श्रम की भौतिक परिस्थितियों का मालिक बना लिया है।
मार्क्स के साम्यवादी समाज का श्रमजीवी मनुष्य एक ‘सहचर मजदूर’ है। वह प्रकृति का स्वामी नहीं, उसका साझीदार है। समाजवादी समाज का योजनाबद्ध विकास मुनाफे की किसी अंधी दौड़ पर नहीं, प्रकृति और मनुष्य के साहचर्य पर टिका होता है। मजदूर वर्ग की मुक्ति का आह्वान करने वाले मार्क्स को थामस मुंजर का यह कथन बहुत प्रिय था कि सभी प्राणियों को संपत्ति में तब्दील कर दिया गया है, जल में मछली को, हवा में पक्षी को, धरती पर पौधों को – सभी जीवित चीजों को मुक्त किया जाए।
जलवायु और पर्यावरण की तरह के प्रश्नों के टिकाऊ समाधान के लिये मानव समाज और प्रकृति के संबंधों की एक ऐसी अविभाज्य दृष्टि के विस्तार की जरूरत है। पर्यावरण की लड़ाई पूंजीवाद के खात्मे की लड़ाई से जुड़ी हुई है।
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
कविगुरू रवींद्रनाथ
लाल सेना ने तब सिर्फ सोवियत संघ को विश्व मानवता की दुश्मन शक्ति से बचाने का काम नहीं किया था, उसने सारी दुनिया की रक्षा की थी और दुनिया के सभी उत्पीड़ित जनों की मुक्ति के पथ को प्रशस्त किया था। बर्लिन पहुंच कर लाल सेना ने कुख्यात आशविज यातना शिविर को मुक्त किया था जो इस धरती पर एक साक्षात नर्क था। यह शिविर नाजियों की चरम बर्बरता का प्रतीक था। यहां जो लोग भी जिंदा थे, उन सबको लाल सेना ने आजाद किया। लाल सेना की इस महान विजय का समूचे यूरोप और एशिया पर क्या असर पड़ा था, उस इतिहास से हम सभी परिचित है। लाल सेना की विजय के साथ ही पूर्वी यूरोप के कई देशों में वहां की जनता ने फासिस्टों के साथ सहयोग करने वाले सभी विश्वासघातियों को खदेड़ बाहर कर समाजवाद की स्थापना की। इसके दो वर्ष बाद ही भारत की आजादी के साथ सारी दुनिया में उपनिवेशवाद के अंत के युग का सूत्रपात हुआ। चीन की क्रांति भी इसी नये युग का परिणाम थी। इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलयेशिया, वियतनाम आजाद हुए, कोरिया के एक हिस्से में समाजवाद कायम हुआ। मुक्ति की लहर लातिन अमरीका तक गयी और अमेरिका की नाक तले क्यूबा में समाजवाद की स्थापना हुई।
महोदय, हम सभी यह भी जानते हैं कि फासीवाद की पराजय से विश्व जनगण की मुक्ति का जो मार्ग प्रशस्त हुआ, उसे शुरू के दिन से ही दुनिया की अन्य साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी शक्तियां पसंद नहीं कर पा रही थी। विश्वयुध्द में जो ताकते सोवियत संघ के साथ मित्र शक्ति के रूप में लड़ रही थी, उन्होंने जर्मनी की पराजय के बाद दूसरे दिन से ही नये समाजवादी देशों में फिर से पूंजीवाद की स्थापना करने और नव-स्वाधीन देशों को फिर से अपने औपनिवेशिक जाल में जकड़ने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। उनका यह राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक अभियान शीत युध्द के रूप में शुरू हुआ। आज हम सभी जानते हैं कि अमेरिका ने दुनिया के 100 से भी ज्यादा स्थानों पर अपने सैनिक अव्े कायम कर लिये है। खास तौर पर 1989 के बाद, सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के पराभव के बाद अमेरिका के नेतृत्व में एक नये प्रकार के उपनिवेशवाद ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। हम यह साफ देख रहे हैं कि अलकायदा की तरह की जिन आतंकवादी ताकतों को अमेरिका का संरक्षण मिला हुआ था, उन्हीं के खात्मे के नाम पर अमेरिकी फौजों ने दुनिया के मध्यभाग और रणनीतिक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। जनसंहारक हथियारों की मौजूदगी के कोरे झूठ के बल पर उन्हीं फौजों ने इराक पर अधिकार कर लिया है। खुद हमारा देश उनकी बेइंसाफियों को कम शिकार नहीं रहा है। जब हमने नाभकीय विस्फोट किये तो अमेरिका ने दुनिया में हमारे देश का हुक्का-पानी बंद करवा देने की कम कोशिशें नहीं की थी। आज शुध्द सामरिक शक्ति के बल पर अमेरिका-ब्रिटेन धुरी सारी दुनिया पर अपनी चौधराहट कायम करने पर आमादा है।
महोदय, इसके अलावा दुनिया के विभिन्न देशों में दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतों ने जो नये सिरे से सिर उठाना शुरू किया है, फासीवाद की पराजय की इस 60वीं सालगिरह पर उस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिये। हम अपने देश में भी सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के उभार को साफ तौर पर देख पा रहे हैं। पिछले दिनों गुजरात में जिस प्रकार से अल्पसंख्यक समुदाय का जनसंहार संगठित किया गया, वह इन फासिस्ट ताकतों की ही एक करतूत थी। ये ताकते हमारे देश की एकता और आंतरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बन रही है।
आज फासीवाद पर विजय की 60वीं सालगिरह के मौके पर हमें यह शपथ लेनी चाहिये कि हम अपने देश के स्वतंत्रता आंदोलन की साम्राज्यवाद-विरोध की परंपरा पर अटल रहते हुए हर प्रकार के फासीवादी रूझानों का पूरी शक्ति के साथ प्रतिरोध करेंगे। इस संसद को फासीवाद पर विजय की 60वीं सालगिरह के अवसर पर इस संकल्प के संदेश को देश के कोने-कोने में ले जाने के लिये वचनबध्द होना चाहिये।
सोमवार, 13 जुलाई 2009
'सुओरानी' के दुखों की लेखिका प्रभा खेतान
ये सारी सूचनाएं हमलोगों के सर पर किसी आसमान टूटने से कम दुखदायी नहीं थी। वैसे ही चंद महीनों पहले हुई अपने जवान भाई की मृत्यु और घर में बीमारियों के गहरे अवसाद से हम अपने को निकाल नहीं पा रहे थे, उसमें फिर प्रभाजी की तरह के एक निकट के मित्र का इसप्रकार अचानक, बिना कुछ कहे चले जाना हमें किसी महाविपदा जैसा प्रतीत हुआ। इधर के कुछ वर्षों में हमलोग सचमुच काफी करीबी होगये थे। प्रभाजी के साथ मैं, सरला, और जगदीश्वर - हम खुद ही अपनी इस चौकड़ी को कुछ अनोखी, अभेद्य और महत्वपूर्ण मानने लगे थे। अक्सर महीने-पंद्रह दिन पर हम जमा होते, अधिकांषत: प्रभाजी के घर पर, कभी-कभार हमारे घर। जब सुधाजी कोलकाता में होती तो वो भी हमारी ऐसी बैठकी में षामिल होजाती थी। शाम के सात बजे से ग्यारह बजे तक का चार घंटों का समय किस प्रकार बीत जाता, पता ही नहीं चलता और इन चंद घंटों में बातों के विषय सिर्फ साहित्य और राजनीति के सामयिक अथवा शास्त्रीय विषय ही हुआ करते थे। यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से चल रहा था, तथापि निजी जीवन के कोई दूसरे विषय हमारी चर्चा में नहीं आते थे। इतने वर्षों के संपर्कों के माध्यम से स्वाभाविक तौर पर हम एक-दूसरे को निजी स्तर पर जितना जान पाये थे, उतना ही जानते थे, कुछ सूचनाएं बाहर की दुनिया से भी मिल जाया करती थी, लेकिन सच कहा जाए तो आपस में हममें से कभी किसी ने अलग से किसी के निजीपन में प्रवेश में रुचि नहीं दिखाई। और, शायद यही वजह थी कि हम आपस में एक-दूसरे पर अगाध विश्वास करने लगे थे और भविष्य में साथ-साथ दुनिया घूमने से लेकर कई प्रकार के साझा साहित्यिक-राजनीतिक प्रकल्पों पर सोचने की शुरूआत करने लगे थे।
दस महीने पहले ही प्रभाजी को लेकर हम अपने पूरे परिवार के साथ 15 दिनों की चीन यात्रा पर गये थे। हमारे बच्चों और जवांई से वे घुल-मिल गयी थी। काफी खुश थी। फिर भी, घर-परिवार का उनका जीवन उनका था, हमारा जीवन हमारा; इसमें कोई सूत्र कायम करने में हमलोगों की कहीं कोई विशेष रुचि नहीं थी। यही वजह है कि हमारे लिये भी प्रभाजी के संपूर्ण व्यक्तित्व का सच्चा आईना आज भी उनका अपना साहित्य ही है। टुकड़ों-टुकड़ों में हम उनके साहित्य के कुछ पहलुओं को अपने अनुभवों और उनके जीवन से जोड़ कर देख-समझ सकते हैं, इसमें एक हद तक उनकी आत्मजीवनी, 'अन्या से अनन्या' भी मददगार हो सकती है, फिर भी मेरा मानना है कि किसी लेखक के संदर्भ में उसके साहित्य के अपने स्वायत्त संसार की कत्तई अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। जीवन को ही साहित्य में सौन्दर्य का सर्वप्रमुख स्रोत मानने पर भी उसमें यथार्थ, कल्पना और विचारों के समाविष्ट रूप की अपनी खास भूमिका न समझने पर हम साहित्य के प्रतिसंसार के निजी सच की ताकत को कभी समझ नहीं पायेंगे। यही वजह है कि आज प्रभाजी की मृत्यु के लगभग दो महीनों बाद उनपर कुछ लिखने बैठा हूं तो उनके साथ बितायी गयी बतकही की लंबी शामों के मुकाबले स्मृति-शेष के रूप में उनकी कविताएं, उपन्यास और अपने प्रकार की आत्मजीवनी जहां काफी उपयोगी जान पड़ती है, वहीं उनके जीवन में झांकने के सबसे प्रामाणिक स्रोत के रूप में इनके प्रयोग पर संशय भी होता है। इस संदर्भ में आत्मजीवनी भी भ्रामक होती है। तथापि, यह समझते हुए कि लेखक के संपूर्ण व्यक्तित्व को उसके साहित्य से जुदा नहीं किया जा सकता है और अंततोगत्वा किसी लेखक से हमारा सरोकार उसके लेखन से ही जुड़ा होता है, प्रभाजी पर लिखते वक्त उनके साहित्य को ही अपना संबल बनाना मुझे अधिक संगत जान पड़ता है। उनसे हमारी मुलाकातों, बातों और तमाम बहस-मुबाहिसों का सही अर्थ भी उनके साहित्य के संदर्भ में निर्मित व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में ही षायद कहीं ज्यादा सारवान दिखाई देगी।
प्रभाजी अकेली थी। उन्होंने विवाह नहीं किया था। हाल ही में एक बेटा गोद लिया था। लेकिन वे कभी भी हमें किसी गृहस्थ मनुष्य से कम संतुलित, सुलझी हुई और सुव्यवस्थित नहीं दिखाई दी। दरअसल हम प्रभाजी के उस जीवन के साक्षी नहीं रहे जब उन्होंने, दुनियादारी के किसी भी तकाजे की बिना कोई परवाह किये, किसी बिंदास की तरह एक विवाहित, अपनी उम्र से 18 वर्ष बड़े, पांच बच्चों के बाप को अपना प्रिय मान कर जीवन भर के लिये अपना लिया था। इसका विस्तृत ब्यौरा उन्होंने अपनी आत्मजीवनी में दिया है। लेकिन हमने उनका जो व्यवस्थित और संतुलित रूप देखा, उसमें इसप्रकार के दुस्साहसी निर्णयों के लिये शायद ही कोई जगह हो सकती थी। फिर भी, यह सच है कि अपने उस अस्वाभाविक से दिखाई देने वाले चयन के कष्टों और दुखों की रोशनाई से ही उन्होंने खुद की लेखकीय तस्वीर उकेरी है और स्त्री, स्वकीया अथवा परकीया कोई भी क्यों न हो, उसके दुखों को केंद्र में रख कर ही अपने साहित्य संसार की रचना की है। यह भी जाहिर है कि दुस्साहस के इसी वेदनादायी मार्ग से उन्होंने अपने स्त्रीपन के गहरे अहसास को अर्जित किया था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी के रूप में प्रभाजी ने 'मैं कौन हूं...' की तरह के जिन सवालों की गहराई में पैठने की तमीज हासिल की थी, व्यवहारिक जीवन में उनके मूर्त रूपों से परिचय का उनका पथ कैसा कठिन पथ था, इसका दस्तावेज है उनकी आत्मजीवनी 'अन्या से अनन्या'।
हमारा जब प्रभाजी से परिचय हुआ, तब वे समाज की एक प्रतिष्ठित महिला थी। अपनी आत्मजीवनी का प्रारंभ उन्होंने राजा नील की जिन दो रानियों, दुओरानी और सुओरानी की चर्चा से किया है, जिनमें प्रभाजी खुदको 'अंग्रेजी बोलने वाली कर्मठ' सुओरानी बताती है, उस सुओरानी की परकीया ग्रंथी से तब तक वे पूरी तरह से मुक्त हो चुकी थी। तब तक उनके व्यक्तित्व पर जीवन के उन भावनात्मक आवेगों के दौर की शायद कोई छाया भी नहीं रह गयी थी। उस दौर का जो शेष था, वह उनकी स्मृतियों की अनंत खदानों का एक अंश भर था, जिसपर उनकी अपनी संपूर्ण मिल्कियत थी और जिसका उत्खनन कर उन्हें अपने लेखकीय जीवन को संपन्न बनाना था। एक कुशल उद्योगपति की तरह प्रभाजी ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया।
यही वजह है, खुद को ही दोहराते हुए कहना चाहूंगा, कि हमने जब उनको देखा, एक बेहद सुलझे हुए, सुव्यवस्थित और संतुलित रूप में ही देखा। कभी-कभी तो हम भी उनके अति-दुनियावी, हिसाबी-किताबी मंतव्यों को देख कर अचंभित से हो जाते थे। उनके साहित्य पर भी इस अर्जित दुनियादारी की साफ छाप दिखाई देती है, वर्ना 'पीली आंधी' के माधो बाबू, पद्मावती और पन्ना लाल सुराणा की तरह के चरित्रों और ष्याम बाबू पर केंद्रित 'तालाबंदी' की तरह के उपन्यासों की रचना मुमकिन नहीं होसकती थी।
प्रभाजी ने कोलकाता के एक सबसे प्रतिश्ठित कालेज, प्रेसीडेंसी कालेज से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया था और वह भी एक ऐसे काल में जब पश्चिम बंगाल की राजनीति संक्रमण के एक सबसे तूफानी दौर से गुजर रही थी। प्रेसीडेंसी कालेज उग्रवामपंथी राजनीति का एक प्रमुख केंद्र होने के नाते माक्र्सवादी राजनीति के तीव्र विमर्श का क्षेत्र हुआ करता था। ऐसे में दर्शनशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी अपने सभी सांस्कारिक अवरोधों के बावजूद उस विमर्श से अछूता नहीं रह सकता था। औद्योगिक घराने और मारवाड़ीपन की पृष्ठभूमि वाली प्रभाजी भी नहीं रही। कालेज में उन्होंने हीगेल, नीत्षे, कीर्केगार्द, हाइडेगर, सार्त्र और कामू के साथ ही मार्क्स को भी उतनी ही शिद्दत से जाना-गुना। पढ़ाई के अंत में उनके शिक्षक ने गुरूदक्षिणा मांगते हुए कहा था कि ''स्त्री होना कोई अपराध नहीं है पर नारीत्व की आंसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध है। अपनी नियति को बदल सको तो वह एकलव्य की गुरूदक्षिणा होगी''। कहना न होगा कि शिक्षा के इन संस्कारों ने उन्हें निश्चित तौर पर स्त्रीपन का नया अहसास दिया। घर की एक काली उपेक्षित लड़की से लेकर स्त्री के नाना रूपों के दुखों का, स्त्री उपेक्षिता का एक संपूर्ण अहसास उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गया। प्रभाजी ने सिमोन द बोउवार की विश्व प्रसिध्द पुस्तक 'द सेकंड सेक्स' का हिंदी अनुवाद 'स्त्री उपेक्षिता' शीर्षक से किया है। उनका उपन्यास 'छिन्नमस्ता' भी उनके इसी गहरे और विद्रोही 'स्त्री अवबोध' की उपज है। अकादमिक शिक्षा के संस्कारों ने उनसे 'शब्दों का मसीहा : सार्त्र' और अल्बेयर कामू के जीवन पर उनकी पुस्तक 'अल्बेयर कामू : वह पहला आदमी' की तरह की कृतियों की भी रचनाएं करवाई।
'पीली आंधी' में प्रभा जी ने सोमा के जिस चरित्र की रचना की थी, वह षायद उन्हींका अपना काम्य व्यक्तित्व रहा होगा जो अपने मारवाड़ीपन की ग्रंथी को झटक कर अपने पैसे वाले नपूंसक मारवाड़ी पति को ठुकरा देती है और एक बंगाली प्रोफेसर के साथ घर बसाती है। यहां पीली आंधी के बारे में थोड़ा विस्तार से चर्चा करना उचित होगा, क्योंकि यही एक ऐसा उपन्यास है जिसे प्रभाजी के जीवन-काल की बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। यह उपन्यास दो हिस्सों में है। इसके प्रथम हिस्से का मुख्य चरित्र है माधोबाबू जिसने राजस्थान से आकर कोलकाता के निकट धनबाद-रानीगंज-झरिया के इलाके में अपनी कोयला खदानों का साम्राज्य फैलाया था और इसी उद्यम में वह खप गया था। मृत्यु के वक्त भी माधोबाबू आंख बंद किये यही सोच रहा था कि ''बीमार हूं, लोग कहते हैं थोड़े दिन के लिये बनारस हो आइये, मन बदल जायेगा। नहीं, मुझे यहां रानीगंज में ही अच्छा लगता है। यहां से पड़ा-पड़ा कोयला खान को देखता रहता हूं ...इतना पैसा इतनी ठाट-बाट।''
माधो बाबू की यह मानसिकता वैसी ही थी जिसे इतालवीं माक्र्सवादी विचारक ग्राम्शी ने फोर्डवाद की संज्ञा दी थी। फोर्डवाद उम्र की आखिरी घड़ी तक कर्मलीन मुनाफे और अपनी पूंजी के साम्राज्य-विस्तार की सीमाहीन लिप्सा को मूर्तिमान करने वाली प्राणीसत्ता का सिध्दांत है। माधो बाबू इसी के एक लघु भारतीय संस्करण थे।
माधो बाबू तो कोलियरियों का साम्राज्य फैलाने में ही मर-खप गये, लेकिन अपने पीछे उन्होंने अन्य मानवीय गुण-दोष वाले जिंदा लोगों का एक पूरा परिवार छोड़ा था। 'पीली आंधी' उपन्यास का दूसरा भाग ऐसे ही बाकी के मानवीय चरित्रों को लेकर है।
माधो बाबू अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद राजस्थान में अपने गांव से अपने से काफी कम उम्र की एक लड़की पद्मावती को ब्याह लाये थे। उम्र में कम होने पर भी पद में बड़ी होने के नाते पद्मावती माधोबाबू और उनके छोटे भाई सांवर के परिवार में उनके जीवित काल में ही अपना केंद्रीय स्थान बना लेती है। माधोबाबू का एक विश्वस्त गुमाश्ता था पन्नालाल सुराणा, उनके पुराने सेठ की गद्दी के मुनीम म्हालीराम का इंजीनियर बेटा। माधो बाबू ने अपनी जायदाद की आधी पाती पद्मावती को दी थी और मरते वक्त सुराणा को कहा था कि वे पद्मावती के हितों का ध्यान रखेंगे। माधोबाबू के अपनी कोई संतान नहीं थी।
उपन्यास के दूसरे हिस्से में माधोबाबू के भाई सांवर का भरापूरा परिवार है जो कोलकाता में बस गया है। पद्मावती इस परिवार की ताईजी के रूप में परिवार की केंद्रीय धुरी होती है। लेकिन इस ताईजी के व्यवहार में अजीबोगरीब विरोधाभास दिखाई देते हैं। ऊपर से तो वे एक टिपिकल संयुक्त वाणिज्यिक परिवार की तमाम नैतिकताओं के संरक्षण का केंद्र दिखाई देती है, लेकिन जब उनकी मृत्यु होती है तो वे अपनी सारी संपत्ति सांवर के छोटे बेटे की उस बहू सोमा के नाम लिख जाती है जो अपने नपूंसक पति से विद्रोह करके एक बंगाली प्रोफेसर के साथ रहने के लिये घर छोड़ देती है, और जिसे घर का दूसरा कोई भी कभी अपना नहीं पाता है। सोमा अपनी ताईजी की संपत्ति तो नहीं लेती लेकिन लाल कपड़े में बंधी ताईजी की उस पुस्तक को ले जाती है जिसे घर के सभी लोग गीता समझते थे। दरअसल वह किताब गीता नहीं बल्कि पन्नालाल सुराणा की निजी डायरी थी जिसमें उन्होंने पद्मावती के साथ अपने अंतरंग संबंधों के बारे में लिखा था। उपन्यास के अंत में इसी डायरी की चर्चा से ताईजी के चरित्र की अपनी खासियत पर से पर्दा उठता है और यह भी जाहिर होता है कि क्यों संयुक्त परिवार की सामंती नैतिकताओं की प्रतीक बनी पद्मावती व्यक्ति सोमा के मर्म को समझने में समर्थ हुई थी।
'पीली आंधी' पर एक बार प्रभाजी के घर में बात हो रही थी और तब प्रभाजी ने बताया था कि उनके इस उपन्यास को उनके संपर्क के कई मारवाड़ी मित्रों ने मारवाड़ी समाज की निंदा कहा था। ताईजी अर्थात पद्मावती और सोमा का चरित्र ऐसे लोगों को नागवार गुजर रहा था। संभवत: प्रभाजी की इसी 'गलती' को दुरुस्त करने के लिये अलका सरावगी ने 'कलिकथा वाया बाईपास'' के जरिये उसी कथानक का नया पाठ तैयार किया। उस उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र है किषोर बाबू, माधो बाबू का एक नैतिक प्रतिरूप। किशोर बाबू माधो बाबूे की तरह धन कमाने की धुन में मरता नहीं है, अपनी नैतिकता का झंडा बुलंद करने के लिये मरते हुए भी बाई पास सर्जरी से जी उठता हैं। उपन्यास के अन्य सारे चरित्र किशोर बाबू की धुरी पर घूमते रहते हैं। किशोर बाबू तमाम 'श्रेष्ठताओं' का पुंज होता है और, इसीसे 'मारवाड़ी श्रेष्ठता' का एक पूरा आख्यान लिख दिया जाता है। जाहिर है 'जातीय श्रेश्ठता' के किसी आख्यान में पद्मावती, सोमा तो दूर की बात, किसी भी स्वतंत्र और स्वावलंबी नारी चरित्र के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता था। और बिल्कुल वैसा ही हुआ भी।
इस बारे में यही कहना चाहूंगा कि तमाम कलात्मक मुलम्मों के बावजूद नकल नकल ही रहती है। जीवन के किसी बृहद परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने की आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि खुद में एक सृजनात्मक उपलब्धि है, इसे सिर्फ किसी नयी पैकेजिंग का मामला भर नहीं बनाया जा सकता है। प्रभाजी ने इस आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि को अर्जित किया था। 'पीली आंधी' के पद्मावती और सोमा के 'विरासत' के प्रसंग ने प्रियम्वदा बिड़ला की वसीयत से जुड़े बहुचर्चित प्रकरण के वक्त इस लेखक को अनायास ही उस उपन्यास की याद दिला दी थी और 'एक वसीयत दो उपन्यास' की तरह की टिप्पणी लिखी गयी थी।
बहरहाल, प्रभाजी ने कुछ अपने व्यापार की जरूरतों के चलते और फिर कुछ दुनिया को घूम-घूम कर देखने-जानने के अपने शगल के चलते दुनिया के अनेक देशों की यात्राएं की थी। अमेरिका और कनाडा तो एक समय उनके लिये अपने दूसरे घर के समान होगया था, जहां वे अपनी बहन के पास अथवा व्यवसाय के लिये लंबा समय गुजारती थी। अमेरिका उनकी चेतना में किसप्रकार बसा हुआ था, इसका एक अंदाज मुझे तब लगा जब 11 सितंबर 2002 के दिन अचानक मेरे पास उनका फोन आया। ''अरुण, गजब होगया है, टेलिविजन पर देख रहे हो, कितना भयावह दृश्य है, टुवन टावर धूलिसात हो रहे है।'' तब तक मैं न्यूयार्क के इन टुवन टावर की महत्ता से पूरी तरह अपरिचित था, इसीलिये प्रभाजी की व्यग्रता की सघनता को समझ नहीं पाया था। बाद में अमेरिकी सरकार और सारी दुनिया की तीव्र प्रतिक्रियाओं से मैं प्रभाजी की उस उत्कंठा को समझ पाया। उनकी बहन कनाडा के मांट्रियल षहर की एक जानी-मानी चिकित्सक है। इसीलिये प्रभाजी को वहां के समाजों को काफी गहरे से देखने का मौका मिला था। 'आओ पेपे घर चले!' की तरह का उनका उपन्यास उनके जीवन के ऐसे अनुभवों की ही देन है। अपनी आत्मजीवनी में भी उन्होंने 'आओ पेपे घर चले!' के काफी अंष को हूबहू रखा है।
प्रभाजी को चालू अर्थों में भले एक सफल प्रबंधकार न कहा जाए, लेकिन सारी दुनिया के स्त्री विमर्ष के प्रति उनकी गहरी दिलचस्पी और इस विमर्ष में अपनी ओर से एक सार्थक योगदान करने की उनकी ललक ने उन्हें अपने समय के वैचारिक सरोकारों से स्वाभाविक रूप से जोड़ दिया था। 'स्त्री उपेक्षिता' तो एक अनुवाद भर थी, लेकिन इधर के वर्शों में प्रकाषित उनकी दो कृतियां, 'उपनिवेष में स्त्री, मुक्ति-कामना की दस वार्ताएं' और 'बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ, भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रष्न' आज के वैष्वीकरण की पृश्ठभूमि में स्त्री प्रष्न पर विमर्ष की ऐसी पुस्तकें हैं जिनकी अवहेलना नहीं की जा सकती है। यह उनके अपने अनुभवों की षक्ति ही थी जिसके बल पर वे कह पायी कि ''स्त्री के जीवन पर भूमंडलीकरण के प्रभाव बहुमुखी, लेकिन विरोधाभासी है। राश्ट्र बनाम भूमंडलीकरण या फिर बाजार बनाम समाज जैसे सरलीकरणों पर सवार होकर स्त्री की आजादी के पैरोकार इन प्रभावों का आकलन नहीं कर सकते।''
आज जब प्रभाजी के समग्र लेखकीय व्यक्तित्व पर सोचता हूं तो इसे एक उपेक्षिता स्त्री के तीव्र अहसास, एक पूरी तरह से आत्मनिर्मित सफल उद्योगपति के आत्म-विष्वास और अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक प्रष्नों के प्रति संवेदनषीलता और जागरूकता के ताने-बाने से निर्मित ऐसे समर्थ व्यक्तित्व के रूप में पाता हूं जिनके पास समाज को देने के लिये अभी बहुत कुछ षेश था, लेकिन काल के क्रूर हाथों ने असमय ही उन्हें हमारे बीच से उठा लिया।
वस्तुत: अभी तक तो वे काफी हद तक खुद को ही लिख रही थी। स्त्री-अस्मिता के गहन बोध, जीवन-मृत्यु और ब्रह्मांड की गहरी दार्शनिक जिज्ञासाओं तथा उनके कर्मोद्दम जीवन ने उन्हें सहज ही प्रगतिषील विचारों से जोड़ दिया था। उन्होंने बड़ों-छोटों, सबको देखा था, अपने बूते दुनिया की हदों को मापा था, परिणामों की बिना कोई परवाह किये प्रेम के बेलौस आवेगों से लेकर व्यापार के ठोस नफे-नुकसान पर आधारित आचार-आचरण को जीया और भोगा था, इसीलिये हर प्रकार के थोथे मिथ्याचार से नफरत उनके स्वभाव की नैसर्गिकता बन गयी थी। आदमी को पहचानने में और सच को समझने में अब उनसे चूक नहीं होती थी। इसीलिये अपने को ही रचने के साथ ही जीवन के छ: दशकों से ज्यादा समय में अपने से बाहर के गहन पर्यवेक्षण की जो षक्ति उन्होंने अर्जित की थी, उसके अनेक-अनेक सृजनात्मक रूपों को उनकी कलम से आना अभी बाकी था।
प्रभाजी से और बहुत कुछ मिल सकता था, यह कहने का अर्थ यह कत्तई नहीं हैं कि उन्होंने जो दिया वह यथेश्ट नहीं था। 'पीली आंधी' की चर्चा मैं पहले भी कर आया हूं। किसी भी लेखक के लिये 'पीली आंधी' की तरह का एक महाकाव्यात्मक उपन्यास ही उसके जीवन की एक बेहद महत्वपूर्ण उपलब्धि माने जाने के लिये काफी है। यह अकेला उपन्यास हिन्दी साहित्य की दुनिया में उन्हें एक विषेश स्थान का अधिकारी बना देता है। कौन नहीं जानता कि कोलकाता महानगर ही परंपरागत रूप में हिन्दी भाशियों का सबसे बड़ा औद्योगिक नगर रहा है। यही शहर भारत के राष्ट्रीय पूंजीपतियों के साथ देश के स्वतंत्रता आंदोलन के संबंधों का सबसे जीवंत साक्षी भी रहा है। इसीलिये भारतीय जीवन में किसी औद्योगिक घराने के परिप्रेक्ष्य से लिखी गयी कथा की रचना यदि किसी स्थान से संभव थी तो वह कोलकाता ही हो सकता था। 'पीली आंधी' के जरिये प्रभाजी ने इस काम को एक समर्थ आलोचनात्मक यथार्थवादी रचनाकार के रूप में जिस योग्यता और परिपक्वता के साथ किया, उसका कोई सानी नहीं है। बाद में उन्हीं की लकीर पीट कर बाजार-तंत्र के दक्ष इस्तेमाल से रातो-रात ख्याति प्राप्त करने के दूसरे भी कुछ प्रयास हुए हैं, लेकिन तमाम कलात्मक मुलम्मों के बावजूद नकल नकल ही रहेगी। जीवन के किसी बृहद परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने की आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि खुद में एक सृजनात्मक उपलब्धि है, इसे सिर्फ किसी नयी पैकेजिंग का मामला भर नहीं बनाया जा सकता है।
प्रभाजी कई संस्थाओं से भी जुड़ी हुई थी। जब वे अपनी व्यवसायिक सफलताओं के उरोज पर थी, तब कोलकाता चैंबर आफ कामर्स की पहली और अब तक की एकमात्र स्त्री अध्यक्ष रही। जनवादी लेखक संघ की कोलकाता जिला कमेटी की वे उपाध्यक्ष थी और इधर दो-एक वर्षों से केंद्रीय हिंदी परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की भी सदस्य रही। वे खुद अपना एक संस्थान 'प्रभा खेतान फाउंडेशन' के नाम से चलाया करती थी। राजेन्द्र यादव की 'हंस' पत्रिका को उनके फाउंडेशन का सहयोग जगविदित है। उनके पास अनेक रंगत के लोगों, साहित्यकारों, पत्रकारों का आना-जाना था। राजनीति और हर प्रकार के सत्ता विमर्शों में उनकी रुचि रहा करती थी। उन्होंने साईंबाबा और रजनीश की तरह के स्वयंभू भगवानों के आश्रमों को भी देखा था और खुद को आस्थावान बताने से परहेज नहीं करती थी। लेकिन फिर भी सच कहा जाए तो अब तक ऐसे किसी भी सामूहिक आयोजन में वे अपने होने की सार्थकता नहीं खोज पायी थी। ऐसे आयोजनों में वह अनेकों-अनेकों सत्तावानों की छुद्रताओं के साक्षी, किसी भी आम जन की भांति अकेली ही थी। खुद अपने ही फाउंडेषन में हम उनकी कोई खास भूमिका नहीं देख पाते थे।
कामू की जिंदगी पर लिखी पुस्तक 'वह पहला आदमी' की भूमिका का अंत उन्होंने इन शब्दों से किया था, ''यह डूबती हुई बीसवीं शताब्दी आज जिस विनाशलीला को झेल रही है, वहां कामू जैसे लेखक का इसलिए अधिक महत्व हो जाता है, क्योंकि वह या फिर उनका महानायक सीसिफस कोई और नहीं, बल्कि आज का वह साधारण आदमी है, जो जिन्दगी जीने की पीड़ा को झेलता हुए भी बार-बार खुशियों का आंचल थामे बिना नहीं रह पाता, जिसके मन में चाहे देवता हो, या फिर मसीहा या फिर सत्ता की कुर्सी पर बैठा हुआ राजनेता, सबके प्रति मोहभंग हो चुका है। वह बस एक साधारण आदमी की तरह अपनी मानवीय गरिमा के साथ जीना चाहता है। कामू जैसे लेखक से हमें अपनी मानवीय गरिमा को बचाए रखने में और इस गरिमा के प्रति संघर्षरत रहने में मदद मिलती है।''
प्रभाजी अपनी इसी एक स्त्री और साधारण जन की गरिमा के साथ हमारे बीच से चली गयी। उनसे और बहुत कुछ पाने की ललक में हम ही पीछे हाथ मलते रह गये। उनकी स्मृतियों को हमारा नमन।