रविवार, 14 मार्च 2010

भविष्य अमेरिका का है यह झूठा दावा है



               

   एरिक हाब्सवाम का एक साक्षात्कार पिछले पांच दशकों से लंदन से निकल रही मार्क्सवादी विमर्श की बहुचर्चित पत्रिका न्यू लेफ्ट रिव्यूके जनवरीफरवरी 2010 के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। 1991 में हाब्सवाम की प्रसिद्ध पुस्तक आत्यांतिकताओं का युग’ (एज आफ एक्सट्रीम्स) प्रकाशित हुई थी। उसके दो दशक बाद की दुनिया की परिस्थिति का बयान करते हुए अपने इस साक्षात्कार में हाब्सवाम ने शुरू में आज की दुनिया में उनके द्वारा लक्षित पांच परिवर्तनों को गिनाया है।
    उसके बाद ही जब उनसे पूछा गया कि इनके अलावा इस दौरान और किन चीजों ने उन्हें अचम्भित किया तो उन्होंने तीन बातों का उल्लेख करते हुए कहा कि मैं आज तक उस नवअनुदार प्रकल्प के शुद्ध पागलपन पर अचंभित हूँ जिसने सिर्फ‍ इस बात का झूठा दावा ही नहीं किया था कि भविष्य अमेरिका है, बल्कि उसने यह भी सोचा था कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये उसने एक पूरी रणनीति और कार्यनीति तैयार कर ली है। जहां तक मुझे नजर आता है, तर्कसंगत अर्थ में, उनके पास कोई युक्तिपूर्ण रणनीति नहीं थी।  
    उन्होंने दूसरा, काफी मामूली लेकिन उल्लेखनीय आश्चर्य, जलदस्युओं की वापसी को बताया, जिसे हम काफी हद तक भूल चुके थे, यह नयी बात है। और इसी सिलसिले में उन्होंने और भी ज्यादा स्थानीयजिस तीसरे आश्चर्य का जिक्र किया वह था, पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) का पतन, जिसकी मैंने सचमुच उम्मीद नहीं की थी।
    इसके साथ ही हाब्सवाम ने वे बातें कही जिन्हें टेलीग्राफने खबर बनाया है कि सीपीआई (एम) के महासचिव प्रकाश करात ने मुझसे हाल में कहा कि पश्चिम बंगाल में वे खुद को संकट में तथा घिरा हुआ पाते हैं। स्थानीय चुनावों में नयी कांग्रेस के हाथों वे करारी शिकस्त देख पा रहे हैं। यह हाल तीस वर्षों तक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में शासन करने के बाद है। किसानों से जमीन लेकर चलायी गयी औद्योगीकरण की नीति का काफी बुरा प्रभाव पड़ा है, और यह साफ तौर पर एक भूल थी।
      अन्य सभी बची हुई वामपंथी सरकारों की तरह ही उन्हें भी आर्थिक विकास, जिसमें निजी विकास भी शामिल है, को मानना पड़ा और इसीलिये उन्हें एक मजबूत औद्योगिक आधार तैयार करना स्वाभाविक जान पड़ा, मैं इसे समझ सकता हूं। लेकिन मुझे यह किंचित आश्चर्यजनक लगता है कि इसका इतना नाटकीय परिणाम हो सकता है।

हाब्सवाम के 18 पृष्ठों के इस लंबे साक्षात्कार में पश्चिम बंगाल के सिलसिले में सिर्फ‍ ये चंद लाइनें हैं, जहां की हाल के घटनाओं को अपने लिये आश्चर्यजनक मानते हुए भी उन्हें वे एक बहुत स्थानीय घटनाक्रम समझते हैं। हाब्सवाम के साक्षात्कार की इस छोटी सी स्थानीयबात का एक स्थानीय अखबार में सुर्खी बन कर प्रकाशित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसीबीच, प्रकाश करात ने एक बयान के जरिये हाब्सवाम के उक्त कुल कथन से अपनी असहमति व्यक्त कर दी है।

बहरहाल, यह एक भिन्न मसला है। हमारे लिये इस 92 वर्षीय इतिहासकार का साक्षात्कार दूसरे कई कारणों से काफी महत्वपूर्ण है, जिनकी हम यहां चर्चा करना चाहेंगे।

हाब्सवाम ने अपनी पुस्तक आत्यांतिकताओं का युग : बीसवीं सदी 1914 से 1991’ में पहले विश्वयुद्ध से शुरू करके रूस की समाजवादी क्रांति, 1929 की महामंदी, उदारतावाद के अंत और तानाशाहियों के उदय, द्वितीय विश्वयुद्ध, उपनिवेशों का अंत, युद्धोत्तर तीव्र आर्थिक विकास का स्वर्णिम युग, फिर आर्थिक संकट, तीसरी दुनिया का उदय, युद्ध और क्रांतियां तथा समाजवाद का पराभव तक के पूरे घटनाक्रम को उसके आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयामों के साथ समेटा था। न्यू लेफ्ट रिव्यूको दिये गये साक्षात्कार में वे इस पुस्तक में समेटे गये काल के बाद के दो दशकों पर बात कर रहे थे, जो गौर करने लायक महत्वपूर्ण बात है।

विगत बीस सालों में दुनिया के इतिहास में उन्हें कौन सी प्रमुख नयी बातें दिखाई देती हैं, इस सवाल के जवाब में हाब्सवाम ने पांच प्रमुख परिवर्तनों को गिनाया है। पहला, दुनिया का आर्थिक केंद्र उत्तर अतलांटिक से हट कर दक्षिण और पूर्व एशिया में आ गया है। इसकी शुरूआत सत्तर और अस्सी के दशक में जापान से हुई थी, लेकिन 90 के दशक में चीन के उदय से एक वास्तविक फर्क आया है।
    दूसरा बड़ा परिवर्तन वे पूंजीवाद के विश्वव्यापी संकट को मानते है जिसकी वे भविष्यवाणी कर रहे थे लेकिन उसके बावजूद इसे सामने आने में लंबा समय लगा।
    तीसरी बात यह कि 2001 के बाद अमेरिका ने दुनिया पर अपना जो एकछत्र प्रभुत्व कायम करने की कोशिश की थी, वह पूरे ढोलधमाकों के साथ ध्वस्त होगयी है उसकी विफलता साफ देखी जा सकती है।
    चौथा, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) के रूप में विकासशील देशों के एक नये राजनीतिक गुट का उदय, जो उनकी किताब के लिखे जाने तक अस्तित्व में नहीं आया था।
     और पांचवां परिवर्तन, दुनिया के बड़े हिस्से में सुव्यवस्थित ढंग से राज्य की सत्ता का क्षय और उसका कमजोर होना है। हाब्सवाम का कहना है कि इसे पहले देखा जा सकता था, लेकिन इधर यह जिस तेजी से हो रहा है, इसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी।

इसीमें आगे इस सवाल पर कि वे आज के संकट की 1929 की महामंदी से कैसे तुलना करते हैं, हाब्सवाम ने जो मार्के की बातें कही उनकी ओर ध्यान दिलाना भी यहां हमारा अभीष्ट है। वे कहते हैं, 1929 बैंकों से शुरू नहीं हुआ था बैंकों का उसके दो वर्ष बाद तक पतन नहीं हुआ था। बनिस्बत्, शेयर बाजार ने उत्पादन में गिरावट का श्रीगणेश किया। 1929 की तुलना में अभी की मंदी की कहीं ज्यादा तैयारियां की गयी थी। नवउदार तत्ववाद ने पूंजीवाद की क्रियाशीलता में जो भारी अस्थिरता पैदा कर दी है, उसे काफी पहले ही देख लिया जाना चाहिए था। 2008 तक इसने सिर्फ‍ हाशिये के क्षेत्रों – 90 के दशक में लातिन अमेरिका तथा 21वीं सदी के शुरू में दक्षिण पूर्व एशिया, रूस को प्रभावित किया था। प्रमुख देशों के लिये इसका मायने सिर्फ‍ समयसमय पर शेयर बाजारों का गिरना था जिससे वे जल्द ही उबर जाते थे। हाब्सवाम के अनुसार 1998 में जब दीर्घमियादी पूंजी प्रबंधन की व्यवस्था का पतन हुआ तभी यह समझ लेना चाहिए था कि विकास का यह समूचा मॉडल ही कितना गलत है।

इसी सिलसिले में वे आगे कहते हैं कि आज की तुलना में 1929 की विश्व अर्थव्यवस्था कम वैश्विक थी। सोवियत संघ के अस्तित्व का मंदी पर कोई व्यवहारिक प्रभाव नहीं था, लेकिन एक गहरा विचारधारात्मक प्रभाव था एक विकल्प था। 90 के दशक के बाद से हमने चीन और अन्य उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं के उभार को देखा है जिनका दरअसल आज की मंदी पर व्यवहारिक प्रभाव है।... सचाई यह है कि उस समय भी जब नवउदारवाद अपनी समृद्धि का दावा कर रहा था, वास्तविक अभिवृद्धि मुख्य रूप से इन नव विकसित अर्थव्यवस्थाओं मेंखास तौर पर चीन में हो रही थी। मेरा पक्का मानना है कि यदि चीन न होता तो 2008 की गिरावट कहीं ज्यादा गंभीर होती।

आप इधर की प्रमुख पश्चिमी पत्रिकाओं, ‘द इकोनोमिस्ट’, ‘टाईमतथा न्यूजवीकके अंकों को देखिये, चीन के साथ पश्चिम के नफरत और प्यार की पूरी कहानी साफ समझ में आजायेगी। चीन को अपनी बढ़ी हुई आर्थिक हैसियत का अनुमान है, अब वह पहले के किसी भी समय की तुलना में कहीं ज्यादा गहरे आत्मविश्वास के साथ राजनीतिक मामलों में भी दखल देता है, यह बात पश्चिम के रणनीतिकारों और उनकी प्रवक्ता पत्रिकाओं को नागवार गुजर रही है। वे चीन पर अंकुश चाहते हैं। साथ ही अंतिम निष्कर्षों के तौर पर यह भी मानते हैं कि अमेरिका और चीन वैश्विक प्रभाव के मामले में सिफ‍र् प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, वे परस्पर निर्भरशील अर्थव्यवस्थाएं भी है जिन्हें आपस में सहयोग से हर चीज का लाभ है। मतभेद यदि टकराहटों में बदल जाए तो किसी को भी फायदा नहीं है।


चीनी और अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं की यह कथित परस्परनिर्भरशीलता दुनिया की परिस्थिति के बारे में अपने किस्म का एक अभिनव दृश्यपट प्रस्तुत करती है, जिसके सिर्फ‍ आर्थिक नहीं बल्कि व्यापक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों की थाह पाना किसी भी प्रकार की विश्वरणनीति के लिये जरूरी है। 1929 के वक्त का जिक्र करते हुए हाब्सवाम कहते हैं कि उस समय सोवियत संघ की उपस्थिति एक विचारधारात्मक प्रभावतथा विकल्पके तौर पर थी, जबकि आज का चीन विश्व अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख कारक तत्व है। सचाई यह है कि हाल के अमेरिकी संकट में अगर किसी देश ने अमेरिका के लिये सबसे बड़े त्राणदाता की भूमिका अदा की तो वह चीन ही था। अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद के जरिये चीन अमेरिका को ऋण देने वाला आज सबसे बड़ा देश बन चुका है। चीन के प्रमुख अंग्रेजी सरकारी दैनिक पीपुल्स डेलीने लिखा था कि चीन के हाथ में भारी मात्रा में अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों के होने का अर्थ यह है कि वह कभी भी डालर की एक आरक्षित मुद्रा की हैसियत को खत्म कर सकता है। ऐसा कहने के बाद ही उसमें आगें यह भी कहा गया कि यह स्थिति वस्तुत: निश्चित परस्पर विनाश पर आधारित शीत युद्धकालीन गतिरोध का विदेशी मुद्रा संस्करण है। ओबामा के आर्थिक सलाहकार लारेंस समर्स ने किसी समय अमेरिका और उसके विदेशी कर्जदाताओं के संबंधों को वित्तीय आतंक का संतुलनकह कर परिभाषित किया था। पीपुल्स डेलीकी निश्चित परस्पर विनाश पर आधारित शीत युद्धकालीन गतिरोध के विदेशी मुद्रा संस्करण की बात लारेंस समर्स के वित्तीय आतंक का संतुलनकी पदावली को ही प्रतिध्वनित करती है।

मजे की बात यह भी है कि परस्पर निर्भरशीलता के इस गहरे अहसास के बावजूद सभ्यताओं के संघर्ष की नस्लवादी मानसिकता से पश्चिमी रणनीतिकार कभी मुक्त नहीं हो पाते हैं। चीन के इस नये उदय में उन्हें जो खतरे की घंटी सुनाई देती है, उसे द इकोनोमिस्टने इस प्रकार लिखा हैं : ब्रिटिश साम्राज्य के स्थान पर दुनिया में अमेरिकी साम्राज्य का प्रभुत्व बिना किसी खून खराबे के कायम होगया क्योंकि दोनों की सांस्कृतिक और राजनीतिक विरासत एक थी। लेकिन जब जापान और जर्मनी ने सर उठाने की कोशिश की तब कैसा विनाशकारी विश्व युद्ध हुआ, इसे सभी जानते हैं। इसी प्रकार चीन की बढ़ती हुई समृद्धि और ताकत और भी ज्यादा उत्तेजनापूर्ण होंगे।
कुल मिला कर, हाब्सवाम ने मौजूदा विश्व के रूझानों के बारे में जो तमाम बातें कही है, उन सब पर ध्यान देने की जरूरत के बावजूद, वित्तीय संकट के समाधान में चीन और अमेरिका के प्रकट साझा हितों से जुड़े दुनिया के इस नये यथार्थ के तमाम प्रसंग काफी सजग और आलोचनात्मक दृष्टि की अपेक्षा रखते हैं। 







मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

कोपेनहेगन की उत्तेजना के मूल में मनुष्य की चिन्ताएं


धरती की जलवायु पर कोपेनहेगन सम्मेलन (7–18 दिसंबर ’09) खत्म होगया। सम्मेलन के अंदर और बाहर, सभी जगह बेहिसाब उत्तेजना रही। उत्तेजना के मूल में यह चिंता थी कि इस पृथ्वी ग्रह को बचाने का आखिरी मौका है। अब न चेता गया तो पृथ्वी और उसपर मनुष्य मात्र के अस्तित्व पर खतरा है।

इसके बावजूद, अमेरिका, चीन, भारत, ब्राजिल, जर्मनी, फ्रांस आदि आज की दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले देशों के राष्ट्राध्यक्ष घंटों सर खपाते रह गये, लेकिन जिसे सख्ती के साथ सारी दुनिया पर लागू किया जा सके, ऐसी वैद्यानिक बाध्यता वाला कोई नतीजा सामने नही आया। निष्कर्ष के तौर पर जिस समझौते की घोषणा की गयी, वह पर्यावरण को बचाने के बारे में एक सामान्य प्रकार की प्रतिबद्धता के अलावा और कुछ नहीं था। धरती के तापमान को और 2 डिग्री सेंटीग्रेट से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जाना चाहिए, धनी देश अपने ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करेंगे, विकासशील देश अपने उत्सर्जन पर नियंत्रण करेंगे और गरीब देशों को मौसम में परिवर्तन से निपटने के लिये आर्थिक सहायता दी जायेगी इस तरह की कुछ सामान्य प्रतिश्रुतियों के अलावा वनसंरक्षण और ग्रीन तकनीक के महत्व की बातें इस समझौते में कही गयी है।

फिर भी जो लोग इस सम्मेलन को पूरी तरह से विफल बताते हैं, उनके मंतव्य पर टाईमपत्रिका का कहना है कि यह कोरा सरलीकरणहै। उसके टिप्पणीकार के अनुसार विवादों का होना ही इस सम्मेलन का होना है। कोपेनहेगन में समझौते पर पहुंचने के लिये किया गया संघर्ष ही यह बताता है कि मौसम संबंधी नीति अब जाकर परिपक्व हुई है। कोपेनहेगन में चली वार्ता इतने विवादों से भरी हुई इसलिये थी क्योंकि इसके प्रस्तावों का वास्तविक असर सिफ‍र् पर्यावरण पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा। चीन और अमेरिका ने वार्ता के लिये अपने राष्ट्राध्यक्षों को भेजा और सिफ‍र् इसलिये काफी फूंक फूंक कर कदम रखे क्योंकि इसमें उन्हें कुछ खोना था।

संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में पर्यावरण सम्मेलनों का सिलसिला 1972 से शुरू होगया था। कोपेनहेगन सम्मेलन 15वां सम्मेलन था। 1997 में जापान के क्योटो में तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाये जाने के बारे में दुनिया के देशों के बीच बाकायदा एक समझौता हुआ था, जिसे 2005 के फरवरी से कानूनन लागू कर दिये जाने की बात थी। उस समझौते पर दुनिया के 141 देशों ने हस्ताक्षर किये थे तथा सबने अपनी राष्ट्रीय सभाओं से उन पर मोहर भी लगवा ली थी। लेकिन अकेले अमेरिका की सीनेट ने उसे स्वीकार नहीं किया और वह पूरा समझौता अधर में लटक कर रह गया। क्योटो संधि के अनुसार सात वर्ष के अंदर दुनिया के विकसित देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 5 प्रतिशत कटौती करनी थी। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उस पर हस्ताक्षर किये थे। लेकिन 2001 में अमेरिका के नये राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इस संधि को यह कह कर ठुकरा दिया कि यह एक बेहद महंगा मामला है। परवर्ती दिनों में व्हाइट हाउस ने ग्लोबल वार्मिंग के बारे मे वैज्ञानिकों के आकलन पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिया और कहा जाने लगा कि यदि अमेरिका इस संधि को मान लेता है तो उससे सारी दुनिया में करोड़ों लोगों के रोजगार छिन जायेंगे।

प्रश्न जहां इस पृथ्वी और उसपर मनुष्यमात्र के अस्तित्व से जुड़ा हुआ हो, वहां भी राष्ट्रों के खोनेपाने का स्वार्थी हिसाब किया जा रहा है, इसे देख कर बहुतों को आश्चर्य हो सकता है। लेकिन वैश्विकचिंताओं वाले इस युग की सबसे बड़ी सचाई यही है। इससे साफ है कि जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण का सवाल सिफ‍र् प्राकृतिक विज्ञान की किसी एक शाखा और उसके विशेषज्ञों का सवाल नहीं है, जैसा कि इस बीच तैयार होगयी पेशेवर पर्यावरण विशेषज्ञों की एक बड़ी सी फौज बताना चाहती है, बल्कि उससे बहुत आगे पूरे सभ्यता विमर्श से जुड़ा हुआ एक व्यापक सामाजिकआर्थिक सवाल है।

कोपेनहेगन में भी इस सच के अहसास की झलक दिखाई दी थी। इसका प्रमाण अखबारों की रिपोर्टों से पता चलता है कि वहां इका हुए गैरसरकारी प्रतिनिधियों के बीच गांधीजी के प्रति बड़ा आग्रह था और सम्मेलन स्थल के बाहर ही गांधीजी की एक बड़ी सी तस्वीर भी लगी हुई थी। आज के काल में पर्यावरण के संदर्भ में गांधीजी का स्मरण अनायास नहीं है। यह साल गांधीजी की पुस्तक हिंद स्वराजकी शताब्दी का साल है और हिंद स्वराजको आधुनिक सभ्यता के खिलाफ तीव्र घृणा से भरा एक जोरदार अभियोग पत्र कहा जा सकता है। इसमें मौजूदा पूंजीवादी आधुनिक सभ्यता को अधर्म’, ‘शैतानी राज्य’, ‘कलियुग’, ‘नाशकारीऔर नाशवानक्याक्या नहीं कहा गया है। यह ऐसी सभ्यता है कि इसकी लपेट में पड़े हुए लोग अपनी ही सुलगाई आग में जल मरेंगे। इस सभ्यता के प्रतीक रेलगाड़ी, वकील और डाक्टर पर गांधीजी का आरोप था कि भारत को रेलगाडि़यों, वकीलों और डाक्टरों ने कंगाल बना दिया है।

गांधीजी ने इस सभ्यता को बुरी तरह कोसा था, 1909 के बाद से लेकर आजादी के पहले तक वे अपने उन विचारों में किसी परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह हैे कि खुद अपनी देखरेख में उन्होंने कांग्रेस के मंच से भारत के भावी विकास की जिन तमाम योजनाओं को अनुमोदित किया, वे रेल की पटरियों को उखाड़ फेंकने या अदालतों को खत्म कर देने और आधुनिक चिकित्सा को ठुकराने की योजनाएं नहीं थी। अगर गहराई से देखे तो पता चलेगा कि गांधीजी की आधुनिक वर्तमान की त्रासदियों की पहचान और उसे अधर्म बताना उनके असहयोगकी तरह ही उनका नकारथा, विकल्प नहीं। किसी भी बात को अस्वीकार करना भी उतना ही बड़ा आदर्श हो सकता है जितना किसी बात को स्वीकार करना...उपनिषदों के रचयिताओं ने ब्रा का सबसे अच्छा वर्णन नेतिनेतिकहकर ही किया है। असहयोग के बारे में रवीन्द्रनाथ की आपत्तियों पर बहस करते हुए गांधीजी का यही मूल जवाब था। उनके विपरीत रवीन्द्रनाथ का सारा बल इस बात पर था कि मनुष्य के अंत:करण का धर्म यही है कि वह परिश्रम से केवल सफलता ही नहीं बल्कि आनंद भी प्राप्त करता है। ...यदि कुछ लोग कहें, यह पत्थर का फलक हमारे दादापरदादाओं का हथियार है, इसको यदि हम छोड़ दें तो हमारी जाति नष्ट हो जायेगी तो जिसको वे जातिरक्षाकहते हैं वह संभव हो भी सकती है लेकिन वे मानवता की महान परंपरा को आघात पहंुचाते हैं जो उनकी भी है। जो लोग आज भी पत्थर के फलक से संतुष्ट हैं उनको मनुष्य ने जाति से बाहर कर दिया है वे जंगलों में छिपकर जीवन व्यतीत करते हैं।

इसीलिये मसला गांधीजी के इस नकारको सत्य मानने का नहीं है, उसकी अन्तरदृष्टि को समझने और आत्मसात करने का है। गांधीजी ने वर्तमान की त्रासदी की लाक्षणिक पहचान की और उसकी बुराइयों की निंदा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन इस त्रासदी की बुनियाद में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के जरिये सक्रिय जो लोभलालच काम कर रहा है, जो रवीन्द्रनाथ के संधानशील मानवीय अंत:करण को, विज्ञान भी जिसकी एक अभिव्यक्ति है, नगदकौड़ी की सेवा में नियुक्त किये हुए है, गांधीजी उसके प्रति कभी उतने निर्मम और कठोर नहीं हो पाये।

प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार को मनुष्य के साथ मनुष्य के व्यवहार से अलग करके नहीं समझा जा सकता। जिस समाज में उत्पादन के साधनों से विच्छिन्न मनुष्य की श्रम शक्ति एक बिकाऊ माल होती है, प्रकृति को अपना दास मानना और उसका अधिक से अधिक पण्यीकरण भी उसी समाज की मूल प्रवृत्ति है। श्रम की तरह ही प्रकृति संपदा का एक प्रमुख स्रोत है। पूंजीवादी अर्थनीतिशास्त्र उसे मुफ्त की चीज नहीं मानता। और, कहना न होगा, पूरी समाज व्यवस्था प्रकृति तथा श्रम, इन दोनों की ही अबाध लूट को बदस्तूर कायम रखने के समूचे तामझाम के अलावा और कुछ नहीं है। श्रम ही सारी संपदा का श्रोत हैक्लासिकल अर्थशास्त्र के इस कथन को मार्क्‍स एक दुरभिसंधिमूलक कथन मानते थे। उनके शब्दों में पूंजीपति अगर झूठे ही श्रम पर अलौकिक सृजन शक्ति का आरोप करते हैं तो वे ऐसा सकारण करते हैं, क्योंकि ठीक इसी बात से कि श्रम प्रकृति पर निर्भर करता है, यह बात पैदा होती है कि जिस मनुष्य के पास अपनी श्रमशक्ति के अलावा और कोई संपत्ति नहीं है, उसे समाज और संस्कृति की सभी अवस्थाओं में उन दूसरे मनुष्यों का दास होना पड़ेगा, जिन्होंने अपने को श्रम की भौतिक परिस्थितियों का मालिक बना लिया है।

मार्क्‍स के साम्यवादी समाज का श्रमजीवी मनुष्य एक सहचर मजदूरहै। वह प्रकृति का स्वामी नहीं, उसका साझीदार है। समाजवादी समाज का योजनाबद्ध विकास मुनाफे की किसी अंधी दौड़ पर नहीं, प्रकृति और मनुष्य के साहचर्य पर टिका होता है। मजदूर वर्ग की मुक्ति का आह्वान करने वाले मार्क्‍स को थामस मुंजर का यह कथन बहुत प्रिय था कि सभी प्राणियों को संपत्ति में तब्दील कर दिया गया है, जल में मछली को, हवा में पक्षी को, धरती पर पौधों को सभी जीवित चीजों को मुक्त किया जाए।

जलवायु और पर्यावरण की तरह के प्रश्नों के टिकाऊ समाधान के लिये मानव समाज और प्रकृति के संबंधों की एक ऐसी अविभाज्य दृष्टि के विस्तार की जरूरत है। पर्यावरण की लड़ाई पूंजीवाद के खात्मे की लड़ाई से जुड़ी हुई है।